राम चरित मानस का सूत्रात्मक सिद्धांत - जिस कार्य के प्रारम्भ में प्रसन्नता हो वह कार्य परिपूर्ण होता है.
परमात्मा जिसे मुहोब्बत करता है ऐसे जागृत महापुरुष की करूणा से निकली हुई बोली से हम प्रसन्न रहते है - ऐसा जहा तक मेरा व्यक्तिगत मानना है.
गुरु एक ऐसा तत्त्व है की जिस तत्त्व की छाया में हम सब जीते है. गुरु के लक्षण को सिद्ध कर सके ऐसे जागृत महापुरुष के संग में और उनके मार्ग दर्शन में जीना चाहिए.
पांच देवो की पूजा सूत्रों के रूप में हम थोडा हो सके तो आत्मसात करे -
१. उजाले में जीना वो सूर्य पूजा.
२. व्यवहार में विवेक रखना वो गणेश पूजा.
३. ह्रदय की व्यापकता से दुनिया में जीना वो विष्णु पूजा
४. विशेषण मुक्त श्रद्धा, त्रिगुनातित श्रद्धा वो दुर्गा पूजा
५. दुसरो का शुभ कल्याण हो ऐसे भाव से जीना वो शंकर पूजा.
तीन वाणी
१. श्लोक वाणी - यह ज्यादातर भविष्य काल से सम्बंधित है.
२. लोक वाणी - यह वर्तमान काल के साथ निरंतर संबंधित रहती है.
३.शोक वाणी - यह भुत काल के साथ संबंधित है.
मानस रूपी औषधि से मैंने मेरी यात्रा में कई लोगो के काम क्रोध और लोभ को क्रमशा कम होते हुए देखा है.
मेरी दृष्टी में राम चरित मानस स्वयं एक औषधि है, जितना हो सके मानसिक रोगों को मिटने आया हु.
मानस के सभी कांड में लागु होने वाले रोग
१. बाल कांड - संशय
मेरी निजी प्रार्थना है की संशय पैदा करे ऐसे लोगो का संग मत करो, अपना भरोसा बढा दे ऐसे लोगो का संग करो.
२. अयोध्या कांड - काम
काम रूपी भुजंग जिसको डस जाता है उसको संसार विषय रूपी भोग मीठे लगते है.
३. अरण्य कांड - चोरी
किसीका अपहरण करना सिर्फ गुनाह ही नहीं मानसिक रोग भी है.
४. किष्किन्धा कांड - अभिमान
५. सुन्दर कांड - कुरूपता, विचारो और सिद्धांतो की
६. लंका कांड - तमस , इसमें तमो गुण का प्राबल्य है.
७. उत्तर कांड - इस कांड का रोग क्रोध है.
और इन सभी रोगों का औषध मानस है.
हरी नाम में प्रीति और प्रतीति दोनों मिल जाये तो हमारा आनंद बढा देती है.
हरी नाम को भी औषध माना गया है. ये हमारा रक्षक भी है, इसलिए नाम का आश्रय बहुत करना.
काम, क्रोध और लोभ के कारण आती मूर्छा और उसका इलाज.
१. आर्थिक मूर्छा यह लोभ है. जिसे लोभ हो उसे आर्थिक विवेक रहता ही नहीं. उसका निवारण समर्पण याने दान करने से होगा.
२. मानसिक मूर्छा माने काम. उसका इलाज है हरिनाम का ज्यादा स्मरण.
३. बौद्धिक मूर्छा याने क्रोध. बुद्धि के सहारे जीने वाला क्रोधित हो जाता है. इसका निवारण है किसी बोधमयी महापुरुष के साथ जीना.
प्रसन्नता व्यक्ति को तीन वस्तु से भर देती है...
१. असंगता - आदमी जितना असंग रहेगा उतना प्रसन्ना रहेगा. संग आदमी को बीमार बना देता है. कमल के तरह जल में रहकर असंगता से जीना. एक निश्चित डिस्टन्स बनाये रखना, कोमलता से कठोरता से नहीं.
२. मन की तेजस्विता - प्रसन्नता आदमी को कभी मलान नहीं होने देती. वह मन से तेजस्वी बनता है.
३. करुणता - आदमी अन्दर से बरसता हो बादल की तरह करुणा से.
मेरी एक प्रार्थना है एक बार करके देखो. तुम्हारा सब कुछ पद प्रतिष्ठा को एक बार छोड़कर भाव से हरी नाम लो. प्रसन्नता तुम्हारे पैर चूमेगी.
कथा में मूल तो वही रहेगा पर फूल समयानुकूल नया खिलेगा. इसलिए लोग कथा में प्रसन्न रहते है.
युवा भाई बहनों से मेरा कर बद्ध निवेदन है की कुछ भी हो आप प्रसन्न रहने का संकल्प करना.
अध्यात्मिक जगत में मानसिक रोग से हम निवृत्त हो गए है उसका प्रमाण यह है की हम प्रसन्न रहने लगेंगे. रोग निकल जाते है तो प्रसन्नता आती है, प्रसन्नता रहे तो रोग आये ही नहीं. रोगी का एक लक्षण है अप्रसन्नता.
किसीके मानसिक रोग के निवारण के लिए..
१. पुरुषार्थ होना चाहिए
२. प्रारब्ध होना चाहिए
३. किसीकी करुणा भी होनी चाहिए.
हमारे शारीर में वात पित्त कफ इन तीनो की सम्यक मात्रा होनी चाहिए. उसका अतिरेक नहीं होना चाहिए. उसकी विषमता व्यक्ति को रोगी बना देती है.
हमारे मन में जो वात है वो काम है. जो पित्त है वो क्रोध है और जो कफ है वो लोभ है. इन सबकी सम्यकता होनी चाहिए, इनकी विषमता रोग पैदा करती है.
मेरा सब कुछ राम चरित मानस है, उसी के बल पर प्रसन्नता से चलता हु.
हमारे मन में जो वात है वो काम है. जो पित्त है वो क्रोध है और जो कफ है वो लोभ है. इन सबकी सम्यकता होनी चाहिए, इनकी विषमता रोग पैदा करती है.
मेरा सब कुछ राम चरित मानस है, उसी के बल पर प्रसन्नता से चलता हु.
आदमी जगत में कितना भी जागृत क्यों न हो लेकिन, काम क्रोध और लोभ उसको मूर्छित कर सकते है. इस सत्य को अनदेखा न किया जाये. जीवन में कभी भी मुश्किलें आ सकती है लेकिन हरी नाम का बल हमारा पतन नहीं होने देता. आखिरी समय में वो हमें मदद करता है.
बाप रुद्राष्टक जैसी कोई औषधि नहीं है रोज सुबह और शाम उसी को पियो. उसे जीवन का एक अंग बनाओ.
राम कथा को फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर की उपमा दी गयी है. रामकथा हमें चन्द्र किरण समान शीतलता प्रदान करती है और वज्र समान हमारे महा मोह को समाप्त करती है.
काम, क्रोध और लोभ ये तीनो जीवन में सम्यक मात्रा में जरुरी है. लेकिन उसका अतिरेक न हो समत्व पैदा हो तो निरोगिता है.
शिष्य कहते है उसे जो गुरु कहे की पहाड़ के शिखर से गिर जाओ तो गिर जाये. लेकिन मेरी समझ में गुरु वह है जो अधिकारी शिष्य के कहने पर शिखर से गिर जाये.
ज्ञानी याने जिनका देहाभिमान छुट गया है उनके लक्षण.
१. उनका जीवन निरंतर प्रकाशमान रहता है.
२. आनंद - वो आठो पहर आनंद में रहते है.
३. उनके जीवन में हरदम उत्साह बना रहता है.
४. उनमे चैतन्य होता है, जड़ता और मूढ़ता नहीं होती.
दोष इतने ख़राब नहीं होते है जितना हरी का विस्मरण होता है.
युवा लोगो ने गीता के उपदेश के अनुसार ये काम करने चाहिए
१. कोई भी काम करे तो विधि पुर्वक करे.
२. अन्न दान करे.
३. दक्षिणा दे.
४. जो भी कार्य करे श्रद्धा से करे देखा देखी न करे.
मानस में मूर्छा का उल्लेख.
१. लक्ष्मण की मूर्छा संजीवनी से गयी.
२. हनुमान की मूर्छा साधू प्रभाव और हरी नाम से गयी.
३. दशरथ की मूर्छा सुमंत्र के आने से गयी, जब सुमति आई, सत्य मालूम हुआ.
राम चरित मानस - राम की लीला का अवतार.
अयोध्या - राम के धाम का अवतार.
करुणा मूर्ति भरत - रूप का अवतार
हनुमान - नाम का अवतार.
तुम्हारी आत्मा ही परमात्मा है, वह तुम्हे आशीर्वाद दे ऐसा कुछ करो.
प्रेम, भक्ति में साधक के पास दो वस्तु होती है - प्रभु का आश्रय और हरी नाम के अश्रु.
मानस में दी गयी बीमारिया..
१. शोक - जो घटनाये घट चुकी है उसे लेकर दुखी होना.
२. हर्ष - हर्ष के साथ शोक सापेक्ष है. छोटी जीत को लेकर जो हर्षित हो जायेगा वह छोटी हार से दुखी हो जायेगा.
३. भय - किसी भी परिस्थिति में भयभीत रहना, रोग नहीं तो क्या है.
४. प्रीति यानि प्रेम को भी रोग माना गया है.
५. वियोग को भी रोग कहा गया है.
मै कथा का दान सुपात्र के पात्र में ही डालता हु. हम सबकी जो मानसिक बीमारी है उसका इलाज केवल राम चरित मानस है.
दूसरों की तरक्की देखकर जो हमारे दिल में जलन पैदा होती है वो असाध्य है. और सत्संग कथा के माध्यम से दूसरों की तरक्की देखकर हमारी जलन कम होती दिखाई दे तो समझना की वह रोग साध्य होने जा रहा है.
ये सब औषधि तो है लेकिन कायम इलाज नहीं है. ये केवल हमें थोड़ी मदद करते है. परमात्मा का नाम वो भी अनुपान रूपी श्रद्धा के साथ वही आखरी इलाज बन सकता है.
१. नियम के साथ जीवन जीना एक औषधि है.
२. धर्म की स्मृति से आप अधर्म को भूल जाते है. यह एक औषधि है.
३. आचार अच्छी बात है लेकिन उसका अहंकार नहीं होना चाहिए और अतिरेक भी नहीं होना चाहिए.
४. तपस्या भी एक औषधि है, उसका भी अतिरेक नहीं होना चाहिए.
५. ज्ञान में मान आने की सम्भावना है, इससे घमंड पैदा हो सकता है.
६. यज्ञ
७. जप - कोई मंत्र या नाम का जप एक औषधि बन सकता है.
८. दान भी एक औषधि है लेकिन इसका अहंकार नहीं होना चाहिए.
द्वेष से बिलग होना इससे अच्छा है जब प्रेम है तब बिलग हो जाना.
दुनिया में जो भी चीज सरलता से मिलती है उसके समान मूल्यवान कुछ भी नहीं है.
कथा कहते कहते और सुनते सुनते जितना हम राग द्वेष से मुक्त होते जायेंगे तो मन के रोग मिट जायेंगे. हम क्यों उसके पीछे अपने चैतसिक प्रदेश को रोगी करते है.
तुलसी कहते है की वे राम कथा कह रहे है..
१. खुद के सुख के लिए
५. औषधि - जो पहुचे हुए बैद के हाथ में जाये तो करिश्मा करती है और गलत बैद के हाथ में जाये तो बुरा परिणाम ला सकती है.
कोई ऐसे सदगुरु का आश्रय करना जो निरंतर हमारा ध्यान रखे. आदमी में गुरुकृपा से एक ऐसी स्विच आ जाती है जो अपनी कामना को किस स्थिति में किस नंबर पर रखना सिखाती है.
प्रेम रूपी औषध का लक्षण..
१. बलिदान दे लेकिन कभी बदला न ले.
२. प्रेम जो प्रदर्शन नहीं करेगा वो दर्शन करेगा.
पवित्रता + प्रसन्नता = परमात्मा
जब ह्रदय में पवित्रता है और मन में प्रसन्नता है बस उस समय परमात्मा है.
जहा ये छे वस्तु होती है वह देवताओ की सहाय उतरती है.
१. उद्दयम - जरूरी है जिससे हम कुछ पा सके.
२. साहस - भक्ति मार्ग में साहस नितांत आवश्यक है और उसके साथ में सहनशीलता भी.
३. धैर्य - धीरज भी होना चाहिए.
४. बुद्धि - परमात्मा के नाम से बार बार बुद्धि को पवित्र रखना. यज्ञ दान और ताप भी बुद्धि को पवित्र करते है.
५. शक्ति
६. पराक्रम
कलियुग का सबसे बड़ा औषध है हरिनाम हरिनाम हरिनाम.
इति त्रिसत्य.
निरोगी हो गए उसका प्रमाण -
जब भूख लगने लगे सदबुद्धि की.
जब विषय की आशा रूपी दुर्बलता चली गयी.
निर्मल विवेक जल से स्नान करने लगा.
हमारे सदगुरु बैद है. यदि वो कोई बात कहते है तो निरोगी होने के लिए उनपर विश्वास रखना.
भागवत में कहे गए चार सूत्र.
१. इश्वर से प्रेम करो.
२. वैष्णव जन, सात्त्विक जन से मैत्री को.
३. जो बालिश है उनपर करुणा करो.
४. द्वेषी, पाप ग्रस्त उनकी उपेक्षा करो.
औषध है ये बाते दोहावली अनुसार
१. सैयम
२. जप - माला पर जप करना अपने आपको शांत रखना.
३. तप - मुस्कराहट के साथ सहन कर लेना, आप प्रमाणिक और निर्दोष हो तो भी.
४. नेम
५. धर्म
६. व्रत
हमेशा प्रसन्नता बनाये रखने के लिए पतंजलि के चार सूत्र
१. शौच - हम अपने आप को पवित्र करे. यदि रोगी न होना हो तो गन्दगी ही न करे.
४. मौन - चित्त को प्रसन्ना रखना है तो थोडा मौन रहो, कम बोलो.
५. स्वाध्याय - निरंतर पाठ करो. जो सुना है उसका चिंतन मनन करो.
६. आर्जवं - सरलता रोग नहीं होने देगी. स्वभाव सरल होना चाहिए इससे मन की कुटिलता का रोग नहीं आएगा.
७. ब्रह्मचर्य ब्रह्म का स्मरण, चिंतन और मनन.
८. अहिंसा - आदमी का मन भीतर से अहिंसक होगा. भीतर से संकल्प करो की मै किसी को न छलू, किसीकी पीड़ा हरु, किसीका भी दिल न दुखाऊ.
९. समत्व - जीवन में जितना जितना द्वंद्व आये उसमे सम रहना.
गुरुकृपा से यदि हम एक फार्मूला को स्वीकारे तो मानसिक रोगों के आने का द्वार ही न होगा.
ज्ञान जब आसू में परिवर्तित हो जाये. जीवन का सर्वांग ज्ञानमय हो. ज्ञान रूपी गंगा में नख शिख नहाना. इस तरह जब आदमी का ज्ञान पिघले तब समझना भक्ति उर में छा गयी. ये सब निरोगिता के प्रतीक है.
जिन जिन लोगो ने भक्ति मार्ग को पकड़ लिया, उनकी प्रतिष्ठा को तोड़ने का समाज बहुत प्रयत्न करता है. लेकिन भक्त की प्रतिष्ठा नहीं जलती, जगत की ये लंका जल जाती है.
भक्ति कभी भी प्रलोभन से नहीं मिलती.
जहा प्रेम होता है वह त्याग होता है और जहा त्याग होता है वह भीतरी वैराग्य बल बढ़ता है बढ़ता है.
चित्रकूट स्वयं एक औषधि है. यहाँ चित्त को ही चित्रकूट कहा गया है. चित्त वृत्ति का निरोध चैतसिक सय्यम एक औषधि ही तो है.
बाप रुद्राष्टक जैसी कोई औषधि नहीं है रोज सुबह और शाम उसी को पियो. उसे जीवन का एक अंग बनाओ.
हर रोज भोजन हमारा स्वभाव है वैसे ही भजन भी हमारा स्वभाव बनाना चाहिए. हरी नाम की आवृत्ति नितांत आवश्यक है.
राम कथा को फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर की उपमा दी गयी है. रामकथा हमें चन्द्र किरण समान शीतलता प्रदान करती है और वज्र समान हमारे महा मोह को समाप्त करती है.
काम, क्रोध और लोभ ये तीनो जीवन में सम्यक मात्रा में जरुरी है. लेकिन उसका अतिरेक न हो समत्व पैदा हो तो निरोगिता है.
शिष्य कहते है उसे जो गुरु कहे की पहाड़ के शिखर से गिर जाओ तो गिर जाये. लेकिन मेरी समझ में गुरु वह है जो अधिकारी शिष्य के कहने पर शिखर से गिर जाये.
ज्ञानी याने जिनका देहाभिमान छुट गया है उनके लक्षण.
१. उनका जीवन निरंतर प्रकाशमान रहता है.
२. आनंद - वो आठो पहर आनंद में रहते है.
३. उनके जीवन में हरदम उत्साह बना रहता है.
४. उनमे चैतन्य होता है, जड़ता और मूढ़ता नहीं होती.
दोष इतने ख़राब नहीं होते है जितना हरी का विस्मरण होता है.
युवा लोगो ने गीता के उपदेश के अनुसार ये काम करने चाहिए
१. कोई भी काम करे तो विधि पुर्वक करे.
२. अन्न दान करे.
३. दक्षिणा दे.
४. जो भी कार्य करे श्रद्धा से करे देखा देखी न करे.
मानस में मूर्छा का उल्लेख.
१. लक्ष्मण की मूर्छा संजीवनी से गयी.
२. हनुमान की मूर्छा साधू प्रभाव और हरी नाम से गयी.
३. दशरथ की मूर्छा सुमंत्र के आने से गयी, जब सुमति आई, सत्य मालूम हुआ.
राम चरित मानस - राम की लीला का अवतार.
अयोध्या - राम के धाम का अवतार.
करुणा मूर्ति भरत - रूप का अवतार
हनुमान - नाम का अवतार.
तुम्हारी आत्मा ही परमात्मा है, वह तुम्हे आशीर्वाद दे ऐसा कुछ करो.
प्रेम, भक्ति में साधक के पास दो वस्तु होती है - प्रभु का आश्रय और हरी नाम के अश्रु.
मानस में दी गयी बीमारिया..
१. शोक - जो घटनाये घट चुकी है उसे लेकर दुखी होना.
२. हर्ष - हर्ष के साथ शोक सापेक्ष है. छोटी जीत को लेकर जो हर्षित हो जायेगा वह छोटी हार से दुखी हो जायेगा.
३. भय - किसी भी परिस्थिति में भयभीत रहना, रोग नहीं तो क्या है.
४. प्रीति यानि प्रेम को भी रोग माना गया है.
५. वियोग को भी रोग कहा गया है.
मै कथा का दान सुपात्र के पात्र में ही डालता हु. हम सबकी जो मानसिक बीमारी है उसका इलाज केवल राम चरित मानस है.
दूसरों की तरक्की देखकर जो हमारे दिल में जलन पैदा होती है वो असाध्य है. और सत्संग कथा के माध्यम से दूसरों की तरक्की देखकर हमारी जलन कम होती दिखाई दे तो समझना की वह रोग साध्य होने जा रहा है.
प्रेम रूपी कुरोग का कोई औषध नहीं है. मानस में यह कुरोग भरत को हुआ है. स्वयं भरत को भी लगता था की मेरे इस कुरोग का कोई इलाज नहीं है. शायद उसका इलाज हो राम दर्शन. इस रोग का इलाज पद नहीं किसीकी पादुका है. पद और प्रतिष्ठा कभीभी मानसिक रोग का इलाज नहीं बन सकती.
ये सब औषधि तो है लेकिन कायम इलाज नहीं है. ये केवल हमें थोड़ी मदद करते है. परमात्मा का नाम वो भी अनुपान रूपी श्रद्धा के साथ वही आखरी इलाज बन सकता है.
१. नियम के साथ जीवन जीना एक औषधि है.
२. धर्म की स्मृति से आप अधर्म को भूल जाते है. यह एक औषधि है.
३. आचार अच्छी बात है लेकिन उसका अहंकार नहीं होना चाहिए और अतिरेक भी नहीं होना चाहिए.
४. तपस्या भी एक औषधि है, उसका भी अतिरेक नहीं होना चाहिए.
५. ज्ञान में मान आने की सम्भावना है, इससे घमंड पैदा हो सकता है.
६. यज्ञ
७. जप - कोई मंत्र या नाम का जप एक औषधि बन सकता है.
८. दान भी एक औषधि है लेकिन इसका अहंकार नहीं होना चाहिए.
विशुद्ध श्रद्धा की भी अपनी एक घटना होती है, लेकिन उसको प्रयोगशाला में कस्नली में लेकर सिद्ध नहीं किया जा सकता . जिसको पुरे भरोसे के साथ श्रद्धा हो वही समझ सकता है. श्रद्धा जगत की भी एक रहस्यमयी दुनिया है.
कोई अछूता न रह सकता महादेव के बिना. महादेव महादेव हैं. यदि विश्राम पाना हो तो शंकर को भजो. किसी न किसी रूप में आपकी भीतरी धारा शंकर को भजेगी ही भजेगी.
जिस पर तुम्हारी पूरी निष्ठा हो और उसका पावर हो तो उसका एक बोल तुम्हारी बीमारी निकाल देता है.
दुनिया में जो भी चीज सरलता से मिलती है उसके समान मूल्यवान कुछ भी नहीं है.
अपना मन जितना राग द्वेष मुक्त होगा उतना हम निरोगी होंगे. राग द्वेष मन की सुमनता को नष्ट कर देते है.
कथा कहते कहते और सुनते सुनते जितना हम राग द्वेष से मुक्त होते जायेंगे तो मन के रोग मिट जायेंगे. हम क्यों उसके पीछे अपने चैतसिक प्रदेश को रोगी करते है.
बीमारी की कुरूपता ही निरोगिता का श्री गणेश है. दुर्गुणों का स्वीकार सद्गुणों की शुभ शुरुवात है. जो स्वीकार करता है वो आगे बढ़ता है.
बापू की समझ में ...
साधना माने कर्म योग जिसमे साधक कुछ करने से पाता है.
उपासना माने ज्ञान योग जिसमे साधक भीतर से किसी पहुचे हुए सदगुरु के पास बैठ जाता है.
आराधना माने भक्ति योग.
दुसरो को देखने के लिए दृष्टि चाहिए, खुद को देखने के लिए दर्पण चाहिए लेकिन परमात्मा को देखने के लिए दिव्यता चाहिए.
तुलसी कहते है की वे राम कथा कह रहे है..
१. खुद के सुख के लिए
२. वाणी की पवित्रता के लिए
३. मेरे मन को बोध हो और मेरी निजता में स्थिर रहु इस लिए.
अध्यात्म जगत के बैद का नाम है सदगुरु.
पांच चीज जिसका संयोग हो जाये तो मंगल और कुयोग हो जाये तो अमंगल होता है.
१. गृह - जो अच्छे स्थान में आये तो शुभ फल देता है और अच्छे स्थान में न हो तो अशुभ फल देता है.
२. जल - जो मिटटी के साथ मिल जाये तो कीचड़ बनता है और उसी जल को पूजा के पात्र में रखे तो भगवन के अभिषेक के कम आता है.
३. वायु पवन - जो एक बाग़ पे से गुजरेगा तो अगल बगल में खुशबु फैलाएगा और गन्दगी से गुजरेगा तो बदबू फैलाएगा.
४. वस्त्र - जो एक शव पर गया तो कफ़न बनता है और दुल्हे पर गया तो उसका वेश बनता है.५. औषधि - जो पहुचे हुए बैद के हाथ में जाये तो करिश्मा करती है और गलत बैद के हाथ में जाये तो बुरा परिणाम ला सकती है.
कोई ऐसे सदगुरु का आश्रय करना जो निरंतर हमारा ध्यान रखे. आदमी में गुरुकृपा से एक ऐसी स्विच आ जाती है जो अपनी कामना को किस स्थिति में किस नंबर पर रखना सिखाती है.
प्रेम रूपी औषध का लक्षण..
१. बलिदान दे लेकिन कभी बदला न ले.
२. प्रेम जो प्रदर्शन नहीं करेगा वो दर्शन करेगा.
पवित्रता + प्रसन्नता = परमात्मा
जब ह्रदय में पवित्रता है और मन में प्रसन्नता है बस उस समय परमात्मा है.
जहा ये छे वस्तु होती है वह देवताओ की सहाय उतरती है.
१. उद्दयम - जरूरी है जिससे हम कुछ पा सके.
२. साहस - भक्ति मार्ग में साहस नितांत आवश्यक है और उसके साथ में सहनशीलता भी.
३. धैर्य - धीरज भी होना चाहिए.
४. बुद्धि - परमात्मा के नाम से बार बार बुद्धि को पवित्र रखना. यज्ञ दान और ताप भी बुद्धि को पवित्र करते है.
५. शक्ति
६. पराक्रम
कलियुग का सबसे बड़ा औषध है हरिनाम हरिनाम हरिनाम.
इति त्रिसत्य.
निरोगी हो गए उसका प्रमाण -
जब भूख लगने लगे सदबुद्धि की.
जब विषय की आशा रूपी दुर्बलता चली गयी.
निर्मल विवेक जल से स्नान करने लगा.
हमारे सदगुरु बैद है. यदि वो कोई बात कहते है तो निरोगी होने के लिए उनपर विश्वास रखना.
भागवत में कहे गए चार सूत्र.
१. इश्वर से प्रेम करो.
२. वैष्णव जन, सात्त्विक जन से मैत्री को.
३. जो बालिश है उनपर करुणा करो.
४. द्वेषी, पाप ग्रस्त उनकी उपेक्षा करो.
औषध है ये बाते दोहावली अनुसार
१. सैयम
२. जप - माला पर जप करना अपने आपको शांत रखना.
३. तप - मुस्कराहट के साथ सहन कर लेना, आप प्रमाणिक और निर्दोष हो तो भी.
४. नेम
५. धर्म
६. व्रत
हमेशा प्रसन्नता बनाये रखने के लिए पतंजलि के चार सूत्र
१. शौच - हम अपने आप को पवित्र करे. यदि रोगी न होना हो तो गन्दगी ही न करे.
२. तप - जो आदमी थोडा तपेगा तो निरोगी बनेगा.
३. तितिक्षा - किसी ने गाली दी तो दी हम क्यों उसपर तर्क वितर्क करे.४. मौन - चित्त को प्रसन्ना रखना है तो थोडा मौन रहो, कम बोलो.
५. स्वाध्याय - निरंतर पाठ करो. जो सुना है उसका चिंतन मनन करो.
६. आर्जवं - सरलता रोग नहीं होने देगी. स्वभाव सरल होना चाहिए इससे मन की कुटिलता का रोग नहीं आएगा.
७. ब्रह्मचर्य ब्रह्म का स्मरण, चिंतन और मनन.
८. अहिंसा - आदमी का मन भीतर से अहिंसक होगा. भीतर से संकल्प करो की मै किसी को न छलू, किसीकी पीड़ा हरु, किसीका भी दिल न दुखाऊ.
९. समत्व - जीवन में जितना जितना द्वंद्व आये उसमे सम रहना.
गुरुकृपा से यदि हम एक फार्मूला को स्वीकारे तो मानसिक रोगों के आने का द्वार ही न होगा.
ज्ञान जब आसू में परिवर्तित हो जाये. जीवन का सर्वांग ज्ञानमय हो. ज्ञान रूपी गंगा में नख शिख नहाना. इस तरह जब आदमी का ज्ञान पिघले तब समझना भक्ति उर में छा गयी. ये सब निरोगिता के प्रतीक है.
जिन जिन लोगो ने भक्ति मार्ग को पकड़ लिया, उनकी प्रतिष्ठा को तोड़ने का समाज बहुत प्रयत्न करता है. लेकिन भक्त की प्रतिष्ठा नहीं जलती, जगत की ये लंका जल जाती है.
भक्ति कभी भी प्रलोभन से नहीं मिलती.
जहा प्रेम होता है वह त्याग होता है और जहा त्याग होता है वह भीतरी वैराग्य बल बढ़ता है बढ़ता है.
चित्रकूट स्वयं एक औषधि है. यहाँ चित्त को ही चित्रकूट कहा गया है. चित्त वृत्ति का निरोध चैतसिक सय्यम एक औषधि ही तो है.