Tuesday 3 May 2011

adapted contents of http://www.iiramii.net/katha693_manas_aushadh.html

राम चरित मानस का सूत्रात्मक सिद्धांत - जिस कार्य के प्रारम्भ  में प्रसन्नता हो वह कार्य परिपूर्ण होता है.

परमात्मा जिसे मुहोब्बत करता है ऐसे जागृत महापुरुष की करूणा से निकली हुई बोली से हम प्रसन्न रहते है - ऐसा जहा तक मेरा व्यक्तिगत मानना है.

गुरु एक ऐसा तत्त्व है की जिस तत्त्व की छाया में हम सब जीते है. गुरु के लक्षण को सिद्ध कर सके ऐसे जागृत महापुरुष के संग में और उनके मार्ग दर्शन में जीना चाहिए.

पांच देवो की पूजा सूत्रों के रूप में हम थोडा हो सके तो आत्मसात करे -
१. उजाले में जीना वो सूर्य पूजा.
२. व्यवहार में विवेक रखना वो गणेश पूजा.
३. ह्रदय की व्यापकता से दुनिया में जीना वो विष्णु पूजा
४. विशेषण मुक्त श्रद्धा, त्रिगुनातित  श्रद्धा वो दुर्गा पूजा
५. दुसरो का शुभ कल्याण हो ऐसे भाव से जीना वो शंकर पूजा.

तीन वाणी
१. श्लोक वाणी - यह ज्यादातर भविष्य काल से सम्बंधित है.
२. लोक वाणी - यह वर्तमान काल के साथ निरंतर संबंधित रहती है.
३.शोक वाणी - यह भुत काल के साथ संबंधित है.

मानस रूपी औषधि से मैंने मेरी यात्रा में कई लोगो के काम क्रोध और लोभ को क्रमशा कम  होते हुए देखा है.

मेरी दृष्टी में राम चरित मानस स्वयं एक औषधि है, जितना हो सके मानसिक रोगों को मिटने आया हु.

मानस के सभी कांड  में लागु होने वाले रोग 
१. बाल कांड - संशय 
मेरी निजी प्रार्थना है की संशय पैदा करे ऐसे लोगो का संग मत करो, अपना भरोसा बढा दे ऐसे लोगो का संग करो.

२. अयोध्या कांड - काम
काम रूपी भुजंग जिसको डस जाता है उसको संसार विषय रूपी भोग मीठे लगते है.

३. अरण्य कांड - चोरी 
किसीका अपहरण करना सिर्फ गुनाह ही नहीं मानसिक रोग भी है.

४. किष्किन्धा कांड - अभिमान

५. सुन्दर कांड  - कुरूपता, विचारो और सिद्धांतो की

६.  लंका कांड - तमस , इसमें तमो गुण का प्राबल्य है.   

७. उत्तर कांड - इस कांड का रोग क्रोध है.

और इन सभी रोगों का औषध मानस है.

हरी नाम में प्रीति और प्रतीति दोनों मिल जाये तो हमारा आनंद बढा देती है.

हरी नाम को भी औषध माना गया है. ये हमारा रक्षक भी है, इसलिए नाम का आश्रय बहुत करना.

काम, क्रोध और लोभ के कारण  आती मूर्छा और उसका इलाज.
१. आर्थिक मूर्छा यह लोभ है. जिसे लोभ हो उसे आर्थिक विवेक रहता ही नहीं. उसका निवारण समर्पण याने दान करने से होगा.
२. मानसिक मूर्छा माने काम. उसका इलाज है हरिनाम का ज्यादा स्मरण.
३. बौद्धिक मूर्छा याने क्रोध. बुद्धि के सहारे जीने वाला क्रोधित हो जाता है. इसका निवारण है किसी बोधमयी महापुरुष के साथ जीना.

प्रसन्नता व्यक्ति को तीन वस्तु से भर देती है...     
१. असंगता - आदमी जितना असंग रहेगा उतना प्रसन्ना रहेगा. संग आदमी को बीमार बना देता है. कमल के तरह जल में रहकर असंगता से जीना. एक निश्चित डिस्टन्स बनाये रखना, कोमलता से कठोरता से नहीं.
२. मन की तेजस्विता - प्रसन्नता आदमी को कभी मलान नहीं होने देती. वह मन से तेजस्वी बनता है.
३. करुणता - आदमी अन्दर से बरसता हो बादल की तरह करुणा से.

मेरी एक प्रार्थना है एक बार करके देखो. तुम्हारा सब कुछ पद प्रतिष्ठा को एक बार छोड़कर भाव से हरी नाम लो. प्रसन्नता तुम्हारे पैर चूमेगी.
कथा में मूल तो वही रहेगा पर फूल समयानुकूल नया खिलेगा. इसलिए लोग कथा में प्रसन्न रहते है.

युवा भाई बहनों से मेरा कर बद्ध निवेदन है की कुछ भी हो आप प्रसन्न रहने का संकल्प करना.

अध्यात्मिक जगत में मानसिक रोग से हम निवृत्त हो गए है उसका प्रमाण यह है की हम प्रसन्न रहने लगेंगे. रोग निकल जाते है तो प्रसन्नता आती है,  प्रसन्नता रहे तो रोग आये ही नहीं. रोगी का एक लक्षण है अप्रसन्नता.

किसीके मानसिक रोग के निवारण के लिए..
१. पुरुषार्थ होना चाहिए
२. प्रारब्ध होना चाहिए
३. किसीकी करुणा भी होनी चाहिए.
  
हमारे शारीर में वात पित्त कफ इन तीनो की सम्यक मात्रा होनी चाहिए. उसका अतिरेक नहीं होना चाहिए. उसकी विषमता व्यक्ति को रोगी बना देती है.

हमारे मन में जो वात है वो काम है.  जो पित्त है वो क्रोध है और जो कफ है वो लोभ है. इन सबकी सम्यकता होनी चाहिए, इनकी विषमता रोग पैदा करती है.

मेरा सब कुछ राम चरित मानस है, उसी के बल पर प्रसन्नता  से चलता हु.

आदमी जगत में कितना भी जागृत क्यों न हो लेकिन, काम क्रोध और लोभ उसको मूर्छित कर सकते है. इस सत्य को अनदेखा न किया जाये. जीवन में कभी भी मुश्किलें आ सकती है लेकिन हरी नाम का बल हमारा पतन नहीं होने देता. आखिरी समय में वो हमें मदद करता है.

बाप रुद्राष्टक जैसी कोई औषधि नहीं है रोज सुबह और शाम उसी को पियो. उसे जीवन का एक अंग बनाओ.

हर रोज भोजन हमारा स्वभाव है वैसे ही भजन भी हमारा स्वभाव बनाना चाहिए. हरी नाम की आवृत्ति नितांत आवश्यक है.

राम कथा को फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर की उपमा दी गयी है. रामकथा हमें चन्द्र किरण समान शीतलता प्रदान करती है और वज्र समान हमारे महा मोह को समाप्त करती है.
 
काम, क्रोध और लोभ ये तीनो जीवन में सम्यक मात्रा में जरुरी है. लेकिन उसका अतिरेक न हो समत्व पैदा हो तो निरोगिता है.

शिष्य कहते है उसे जो गुरु कहे की पहाड़ के शिखर से गिर जाओ तो गिर जाये. लेकिन मेरी समझ में गुरु वह है जो अधिकारी शिष्य के कहने पर शिखर से गिर जाये.


ज्ञानी याने जिनका देहाभिमान  छुट गया है उनके लक्षण.
१. उनका जीवन निरंतर प्रकाशमान रहता है.
२. आनंद - वो आठो पहर आनंद में रहते है.
३. उनके जीवन में हरदम उत्साह बना रहता है.
४. उनमे चैतन्य होता है, जड़ता और मूढ़ता नहीं होती.

दोष इतने ख़राब नहीं होते है जितना हरी का विस्मरण होता है.

युवा लोगो ने गीता के उपदेश के अनुसार ये काम करने चाहिए
१. कोई भी काम करे तो विधि पुर्वक करे.
२. अन्न दान करे.
३. दक्षिणा दे.
४. जो भी कार्य करे श्रद्धा से करे देखा देखी न करे.

मानस में मूर्छा का उल्लेख.
१. लक्ष्मण की मूर्छा संजीवनी से गयी.
२. हनुमान की मूर्छा साधू प्रभाव और हरी नाम से गयी.
३. दशरथ की मूर्छा सुमंत्र के आने से गयी, जब सुमति आई, सत्य मालूम हुआ.

राम चरित मानस - राम की लीला का अवतार.
अयोध्या - राम के धाम का अवतार.
करुणा मूर्ति भरत - रूप का अवतार
हनुमान - नाम का अवतार.

तुम्हारी आत्मा ही परमात्मा है, वह तुम्हे आशीर्वाद दे ऐसा कुछ करो.
प्रेम, भक्ति में साधक के पास दो वस्तु होती है - प्रभु का आश्रय और हरी नाम के अश्रु.

मानस में दी गयी बीमारिया..
१. शोक - जो घटनाये घट चुकी है उसे लेकर दुखी होना.
२. हर्ष - हर्ष के साथ शोक सापेक्ष है. छोटी जीत को लेकर जो हर्षित हो जायेगा वह छोटी हार से दुखी हो जायेगा.
३. भय - किसी भी परिस्थिति में भयभीत रहना, रोग नहीं तो क्या है.
४. प्रीति यानि प्रेम को भी रोग माना गया है.
५. वियोग को भी रोग कहा गया है.

मै कथा का दान सुपात्र के पात्र में ही डालता हु. हम सबकी जो मानसिक बीमारी है उसका इलाज केवल राम चरित मानस है.

दूसरों की तरक्की देखकर जो हमारे दिल में जलन पैदा होती है वो असाध्य है. और सत्संग कथा के माध्यम से दूसरों की तरक्की देखकर हमारी जलन कम होती दिखाई दे तो समझना की वह रोग साध्य होने जा रहा है.

प्रेम रूपी कुरोग का कोई औषध नहीं है. मानस में यह कुरोग भरत को हुआ है. स्वयं भरत को भी लगता था की मेरे इस कुरोग का कोई इलाज नहीं है. शायद उसका इलाज हो राम दर्शन. इस रोग का इलाज पद नहीं किसीकी पादुका है. पद और प्रतिष्ठा कभीभी मानसिक रोग का इलाज नहीं बन सकती.

ये सब औषधि तो है लेकिन कायम इलाज नहीं है. ये केवल हमें थोड़ी मदद करते है. परमात्मा का नाम वो भी अनुपान रूपी श्रद्धा के साथ वही आखरी इलाज बन सकता है.
१. नियम के साथ जीवन जीना एक औषधि है.
२. धर्म की स्मृति से आप अधर्म को भूल जाते है. यह एक औषधि है.
३. आचार अच्छी बात है लेकिन उसका अहंकार नहीं होना चाहिए और अतिरेक भी नहीं होना चाहिए.
४. तपस्या भी एक औषधि है, उसका भी अतिरेक नहीं होना चाहिए.
५. ज्ञान में मान आने की सम्भावना है, इससे घमंड पैदा हो सकता है.
६. यज्ञ
७. जप - कोई मंत्र या नाम का जप एक औषधि बन सकता है.
८. दान भी एक औषधि है लेकिन इसका अहंकार नहीं होना चाहिए.

 
विशुद्ध श्रद्धा की भी अपनी एक घटना होती है, लेकिन  उसको  प्रयोगशाला   में   कस्नली   में लेकर  सिद्ध  नहीं  किया  जा  सकता . जिसको  पुरे  भरोसे  के  साथ  श्रद्धा हो वही  समझ  सकता है. श्रद्धा जगत  की भी एक रहस्यमयी  दुनिया  है.

 कोई  अछूता  न  रह  सकता महादेव  के बिना. महादेव महादेव हैं. यदि विश्राम पाना हो तो शंकर को भजो. किसी न किसी रूप में आपकी भीतरी  धारा शंकर को भजेगी ही भजेगी.

जिस पर तुम्हारी पूरी निष्ठा  हो और उसका पावर हो तो उसका एक बोल तुम्हारी बीमारी निकाल देता है.

द्वेष से बिलग होना इससे अच्छा है जब प्रेम है तब बिलग हो जाना.

दुनिया में जो भी चीज सरलता से मिलती है उसके समान मूल्यवान कुछ भी नहीं है.

अपना मन जितना राग द्वेष मुक्त होगा उतना हम निरोगी होंगे. राग द्वेष मन की सुमनता को नष्ट कर देते है.

कथा कहते कहते और सुनते सुनते जितना हम राग द्वेष से मुक्त होते जायेंगे तो मन के रोग मिट जायेंगे. हम क्यों उसके पीछे अपने चैतसिक प्रदेश को रोगी करते है.

बीमारी की कुरूपता ही निरोगिता का श्री गणेश है. दुर्गुणों का स्वीकार सद्गुणों की शुभ शुरुवात है. जो स्वीकार करता है वो आगे बढ़ता है.

बापू की समझ में ...
साधना माने कर्म योग जिसमे साधक कुछ करने से पाता है.
उपासना माने ज्ञान योग जिसमे साधक भीतर से किसी पहुचे हुए सदगुरु के पास बैठ जाता है. 
आराधना माने भक्ति योग.

दुसरो को देखने के लिए दृष्टि चाहिए, खुद को देखने के लिए दर्पण चाहिए लेकिन परमात्मा को देखने के लिए दिव्यता चाहिए.

तुलसी कहते है की वे राम कथा कह रहे है..
१. खुद के सुख के लिए
२. वाणी की पवित्रता के लिए
३. मेरे मन को बोध हो और मेरी निजता में स्थिर रहु  इस लिए.

अध्यात्म जगत के बैद का नाम है सदगुरु.  

पांच चीज जिसका संयोग हो जाये तो मंगल और कुयोग हो जाये तो अमंगल होता है.
१. गृह - जो अच्छे स्थान में आये तो शुभ फल देता है और अच्छे स्थान में न हो तो अशुभ फल देता है.
२. जल - जो मिटटी के साथ मिल जाये तो कीचड़ बनता है और उसी जल को पूजा के पात्र में रखे तो भगवन के अभिषेक के कम आता है.
३. वायु पवन - जो एक बाग़ पे से गुजरेगा तो अगल बगल में खुशबु फैलाएगा और गन्दगी से गुजरेगा तो बदबू फैलाएगा. 
४. वस्त्र - जो एक शव पर गया तो कफ़न बनता है और दुल्हे पर गया तो उसका वेश बनता है.
५. औषधि - जो पहुचे हुए बैद के हाथ में जाये तो करिश्मा करती है और गलत बैद के हाथ में जाये तो बुरा परिणाम ला सकती है.

कोई ऐसे सदगुरु का आश्रय करना जो निरंतर हमारा ध्यान रखे. आदमी में गुरुकृपा से एक ऐसी स्विच आ जाती है जो अपनी कामना को किस स्थिति में किस नंबर पर रखना सिखाती है.

प्रेम रूपी औषध का लक्षण..
१. बलिदान दे लेकिन कभी बदला न ले.
२. प्रेम जो प्रदर्शन नहीं करेगा वो दर्शन करेगा.

पवित्रता + प्रसन्नता = परमात्मा
जब ह्रदय में पवित्रता है और मन में प्रसन्नता है बस उस समय परमात्मा है.

जहा ये छे वस्तु होती है वह देवताओ की सहाय उतरती है.
१. उद्दयम  - जरूरी है जिससे हम कुछ पा सके.
२. साहस - भक्ति मार्ग में साहस नितांत आवश्यक है और उसके साथ में सहनशीलता भी.
३. धैर्य - धीरज भी होना चाहिए.
४. बुद्धि - परमात्मा के नाम से बार बार बुद्धि को पवित्र रखना. यज्ञ दान और ताप भी बुद्धि को पवित्र करते है.
५. शक्ति
६. पराक्रम

कलियुग का सबसे बड़ा औषध है हरिनाम हरिनाम हरिनाम.
इति त्रिसत्य.

निरोगी हो गए उसका प्रमाण -
जब भूख लगने लगे सदबुद्धि की.
जब विषय की आशा रूपी दुर्बलता चली गयी.
निर्मल विवेक जल से स्नान करने लगा.

हमारे सदगुरु बैद है. यदि वो कोई बात कहते है तो निरोगी होने के लिए उनपर विश्वास रखना.

भागवत में कहे गए चार सूत्र.
१. इश्वर से प्रेम करो.
२. वैष्णव जन, सात्त्विक जन से मैत्री को.
३. जो बालिश है उनपर करुणा करो.
४. द्वेषी, पाप ग्रस्त उनकी उपेक्षा करो.     
 
औषध है ये बाते दोहावली अनुसार  
१. सैयम
२. जप - माला पर जप करना अपने आपको शांत रखना.
३. तप - मुस्कराहट के साथ सहन कर लेना, आप प्रमाणिक और निर्दोष हो तो भी.
४. नेम
५. धर्म
 ६. व्रत

 हमेशा प्रसन्नता बनाये रखने के लिए पतंजलि के चार सूत्र
 १. शौच - हम अपने आप को पवित्र करे. यदि रोगी न होना हो तो गन्दगी ही न करे.
२. तप - जो आदमी थोडा तपेगा तो निरोगी बनेगा.
३. तितिक्षा - किसी ने गाली दी तो दी हम क्यों उसपर तर्क वितर्क करे.
४. मौन - चित्त को प्रसन्ना रखना है तो थोडा मौन रहो, कम बोलो.
५. स्वाध्याय - निरंतर पाठ करो. जो सुना है उसका चिंतन मनन करो.
६. आर्जवं - सरलता रोग नहीं होने देगी. स्वभाव सरल होना चाहिए इससे मन की कुटिलता का रोग नहीं आएगा.
७. ब्रह्मचर्य ब्रह्म का स्मरण, चिंतन और मनन.

८. अहिंसा - आदमी का मन भीतर से अहिंसक होगा. भीतर से संकल्प करो की मै किसी को न छलू, किसीकी पीड़ा हरु, किसीका भी दिल न दुखाऊ.
९. समत्व - जीवन में जितना जितना द्वंद्व आये उसमे सम रहना.

गुरुकृपा से यदि हम एक फार्मूला को स्वीकारे तो मानसिक रोगों के आने का द्वार ही न होगा.

ज्ञान जब आसू में परिवर्तित हो जाये. जीवन का सर्वांग ज्ञानमय हो. ज्ञान रूपी गंगा में नख शिख नहाना. इस तरह जब आदमी का ज्ञान पिघले तब समझना भक्ति उर में छा गयी. ये सब निरोगिता के प्रतीक है.

जिन जिन लोगो ने भक्ति मार्ग को पकड़ लिया, उनकी प्रतिष्ठा को तोड़ने का समाज बहुत प्रयत्न करता है. लेकिन भक्त की प्रतिष्ठा नहीं जलती, जगत की ये लंका जल जाती है.

भक्ति कभी भी प्रलोभन से नहीं मिलती.

जहा प्रेम होता है वह त्याग होता है और जहा त्याग होता है वह भीतरी वैराग्य बल बढ़ता है बढ़ता है.

चित्रकूट स्वयं एक औषधि है. यहाँ चित्त को ही चित्रकूट कहा गया है. चित्त वृत्ति का निरोध चैतसिक सय्यम एक औषधि ही तो है.

Monday 2 May 2011

Some more drops of nectar...

प्रिय मित्रो,
बापू से आस्था के माध्यम से सुनी है ये सब बाते, सो यहाँ लिख रहा हु. यदि आपको लगता है की कही समझने में गलती हुई है तो ठीक कर देना जी.

महर्षि पतंजलि के नियम -
१. पवित्रता
२. संतोष 
३. तप
४. स्वाध्याय
५. शौच
६. इश्वर प्रणिधान
 योग मार्ग में संतोष नियम है तो भक्ति मार्ग में संतोष आठवी भक्ती है.
जो संतोष नहीं रखते उनके प्रति भी संतोष रखना चाहिए.

प्रवृत्ति भी ठीक है, निवृत्ति भी ठीक है, पर इन दोनों में सद्वृत्ति रहनी चाहिए.
यदि हम किसी महापुरुष की नक़ल कोई लाभ उठाने के लिए कर रहे है, तो यह गलत बात है.
यदि हमें कोई लाभ की चाह नहीं है तो नक़ल भी ठीक ही है.

इन चीजो को फेरते रहना अच्छा होता है...
घोडा
रोटी
पान
माला

गुरु चरणों के कणों को मानस में निम्नलिखित उपमाए दी गयी है..
१. पराग - यहाँ तात्पर्य फूल के सामान खिलने से है
२. धुल - यहाँ तात्पर्य धरती के सामान क्षमाशील और उपकारी बनने से है.
३. रज - यहाँ गुरु पद की सूक्ष्मता समझनी चाहिए.
४. रेणु - यहाँ अर्थ है की गुरु के बताये हुए रस्ते पर पड़े रहो.

दीक्षा का अर्थ है परम स्वातंत्र्य.

मूल में रहो फूल शाखाओ में नहीं, वह व्यवस्था का भाग है.

शास्त्र और राजा किसीके वश नहीं होते.

राज रोग का शमन सुवर्ण भस्म है.

दुःख के कारण -
१. आभाव
२. अन्याय
३. अज्ञान

आदिवासियों की कसरते ध्यान के बिना संभव नहीं.

अभिमत - अपने मत को पूरा करने वाला.

विनोबा भावे कहते है की नारियल फोड़ने के लिए जो घाव पहले किये जाते है वो व्यर्थ है और जो आखरी घाव है वो हे कारगर है ऐसा नहीं है. पहले के घावो ने भी नारीयल की मजबुती तोड़ी है.

 कोई भी काम सफल होने के लिए तीन बाते जरूरी है..
१. व्यवस्था - इसका सम्बन्ध कर्म से है.
२. अवस्था - इसका सम्बन्ध मन से है.
३. आस्था - इसका सम्बन्ध अध्यात्म से है.

इश्वर है की नहीं चिंता नहीं, श्रद्धा तो है.

बुद्धि यह बहिर्मुख चेतना है.

श्रद्धा यह अंतर्मुख चेतना है.

पाप के मूल ...
१. मूढ़ता
२. कुटिलता
३. हिंसा
४. कुचाली जैसे शकुनी और मंथरा
५. दुर्बुद्धि 

नौ प्रकार की भक्ति
१. श्रवण २ कीर्तन ३. स्मरण ४. पाद सेवन ५. अर्चन ६. वंदन ७. दास्य ८. सख्य ९. आत्म निवेदन

दर्शन यह भक्ति का सार है.

सुबह उठकर कर दर्शन करना चाहिए, हमारे कर कोई गलत कम नहीं करेंगे ऐसा प्रण करना चाहिए.

महर्षि विश्वामित्र को जब महाराज दशरथ कहते है की मै सेवक, पुत्र और नारी सहित आपका हूँ, तो उनका तात्पर्य कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से है.

राम को वनवास क्यों हुआ ऐसा प्रश्न जब निषाद ने लक्ष्मण से किया तो जवाब मिला की क्या सूर्य वंश में उत्पन्न होने वाले वातानुकूलित जगहों में रहेंगे. वो तो तपेंगे और दूसरो को सुख देंगे.

जब जोई गृहिणी खाना बनती है तो तीनो योग जरुरी है..
१. ज्ञान योग. - उसे खाना बनाने की विधि का ज्ञान होना चाहिए.
२. कर्म योग - उसने खाना बनाने के लिए आवश्यक कर्म करने चाहिए.
३. भक्ति योग - उसके मन में यह भाव होना चाहिए की भोजन खाने वाला तृप्त हो जाये.

अपनी जितनी औकात है उतना कर्म करना वो कर्म योग.

नागरिको में निम्न लिखित गुण होने चाहिए
१. सहनशील
२. संवेदनशील
३. स्वप्नशील
४. सर्जनशील
५. सत्यशील

हमारी लार टपकनी नहीं चाहिए याने किसीसे कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए.
हमने लार किसी पर थूकनी भी नहीं चाहिए याने किसीकी उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए.

दक्ष की कन्या बुद्धि, हिमालय की कन्या श्रद्धा

हनुमान का राजधर्म है की राम के पास ले जाते है.
सुग्रीव को भी ले गए.
पहले राम (सत्य, प्रेम, करुणा) फिर राज
सोये हुए को जागृत जगाता है, जैसे सुग्रीव को लक्ष्मण ने जगाया
जब जागृत सो जाता है, हनुमान जगाते है. जैसे लक्ष्मण को हनुमान ने जगाया.

हमने यहाँ देखी है किस्म किस्म की नजरे
चकोर चाँद जैसी कोई डगर ढूंढते है

हनुमान ने रावन को समझाया, अपहरण से कल्याण नहीं हो सकता समर्पण से होता है.

गांधीजी ने अपने आचरण से यह बताया की पुरुषार्थ के साथ प्रार्थना होनी चाहिए.
                 
आनंद महलों में नहीं होता मन में होता है.

हम किस स्थान में है इससे कुछ फरक नहीं पड़ता, हा इससे फरक पड़ता है की हमारी दृष्टि कैसी है.
यदि दृष्टि कैकयी की  है तो अयोध्या में भी मंथरा के दर्शन हो जाते है और यदि दृष्टी हनुमान की है तो लंका में भी विभीषण जैसे संत से मुलाक़ात हो जाती है.

जब हम किसी संकट में होते है तो धरती से जुडी हुई बाते ही हमें उभारती है, हवा की बाते नहीं.
सीताजी लंका में थी. रावण जैसा राक्षस उसे डरा धमका रहा था. सीताजी ने रावण को तृण की पात दिखाई. यहाँ संकेत धरातल से जुड़ने का हैं. जब हम धरातल से जुड़ते है तो हनुमान जैसी दैवी शक्ति हमारी रक्षा के लिए हमारे पीछे प्रकट हो जाती है.

भगवान से मुलाक़ात का फल अच्छा ही निकले यह जरूरी नहीं हैं. 
सती ने भगवान राम की परीक्षा करने के लिए मुलाक़ात की. इसका अंजाम यहाँ हुआ की भगवान शंकर ने उन्हें त्याग दिया.
शुर्पनखा ने प्रभु से मुलाक़ात की तो उसके नाक कान कट गए.
इसीलिए गांधीजी ने साधन शुचिता की बात की है.

दक्ष को भगवान शंकर पर क्रोध था. एक बार देवो की सभा में जब दक्ष ने प्रवेश किया तो सभी उठकर खड़े हुए. भगवान शंकर ध्यान में थे इसलिए खड़े नहीं हुए. दक्ष का अपमान हो गया. अहंकारी व्यक्ति का सम्मान सौ लोगो के खड़े होने से नहीं होता है लेकिन एक के खड़े न होने से उसका अपमान हो जाता है.
दक्ष ने यज्ञ का आयोजन भगवान शंकर को अपमानित करने के लिए किया. अंततः यज्ञ का विध्वंस हो गया.
यदि उद्देश्य ठीक नहीं है तो अच्छे कार्यो का भी विध्वंस हो जाता है.

शुर्पनखा जब भगवान से मिलने गयी तो उसके नाक कान कट गए. इसका संकेत इस ओर है की हम जब आतंरिक रूप से शुद्ध नहीं होते है और भगवान के सामने पवित्र रूप में प्रकट होते है तो कालांतर में हम विद्रूप हो जाते है.

हनुमानजी ने सीताजी को जो मुद्रिका दी थी वह भगवान के पास गंगाजी को पार करते समय आयी थी. केवट ने प्रभु को सीता, लक्ष्मण समेत गंगा पार कराया. प्रभु वनवासी थे सो देने के लिए उनके पास कुछ न था. उन्होंने सीताजी से मुद्रिका मांगी और केवट को देना चाही. केवट ने लेने से इंकार कर दिया. वही मुद्रिका प्रभु ने हनुमान को सीताजी को देने के लिए दी. इस प्रकार वह मुद्रिका सीताजी के पास वापस आई. यहाँ केवट और हनुमान की भक्ति के सुक्ष्म भावो को समझे और भक्ति रूपी मुद्रिका को पाने के लिए अधिकार को जाने.

जब हमारा कोई सम्मान करता है तो इसे हम हमारा बड़प्पन न समझ बैठे. यह तो सम्मान देने वाले का बड़प्पन है कि वह विनयशील है.

सीता ने पार्वती की पूजा की, तो ऐसा लिखा है की सीता की भक्ति देखकर मुर्ती मुस्कुरायी. विद्वानों को इस पर आक्षेप है कि मुर्ती मुस्कुरा कैसे सकती है. हा उन लोगो को कैसे पता चले कि मुर्ती मुस्कुराती है जिन्हें देखकर बाहरवाले तो क्या उनके घरवाले भी नहीं मुस्कुराते, अजी मुस्कुराना तो छोडिये उनसे बात भी नहीं करते.

जब हनुमान लंका की ओर उड़ान भर के जा रहे थे तो उनकी भेट एक राक्षसी से हुई. यह राक्षसी समुद्र के ऊपर से उड़ने वाले पक्षियों को मारकर खाती थी. वह उडते पक्षी की परछाई को पकड़ लेती और फिर उसे निचे गिराकर मार डालती. यह राक्षसी कोई और नहीं बल्कि हमारे भीतर रहने वाली इर्ष्या है. राक्षसी समुद्र के प्राणियों को नहीं मारती है. वह जो जीव ऊंचाई पर है उन्हें मारती है. हम हमारी बराबरी के लोगो से इर्ष्या नहीं करते है. उनसे इर्ष्या करते है जो ऊपर उठे हुए है. हम उनकी हर परछाई पर नजर रखते है और उन्हें निचे गिराने की कोई कसर नहीं छोड़ते. हनुमानजी ने इस राक्षसी का अंत कर दिया. हनुमानजी के दर्शन होने से ही हमारी इर्ष्या का अंत हो सकता है.

इन्द्र का लड़का जयंत प्रभु का दर्शन करने के लिए चित्रकूट गया. वह कौवे का रूप धारण कर के गया. प्रभु एकांत में सीता के साथ बैठे थे. जयंत में उनको देखकर गलत भाव जागे और उसने सीता के पैर की ऊँगली में चोच मारी. हम जब भी किसीके यहाँ निमंत्रण पर जाते है तो हम भी दर्शन करने की जगह इधर उधर चोच मारने में ही रूचि दिखाते है.
 प्रभु ने जब यह देखा तो जयंत की ओर उन्होंने एक घास का बाण छोड़ दिया. जयंत अपनी जान बचाने के लिए भागा. वह ब्रह्माजी के पास गया, शिवजी के पास गया लेकिन उसे कोई सुरक्षा नहीं मिली. तब वह अपने पिता इन्द्र के पास गया. इन्द्र ने उससे कहा की तुने अपराध प्रभु का किया है तो इधर उधर क्यों भाग रहा है, जाके प्रभु से क्षमा मांग. हमने इससे यह बोध लेना चाहिए कि हमने यदि किसीका अपराध किया है तो जाके उससे क्षमा मंगनी चाहिए ना की इधर उधर दौड़ना चाहिए.

Sunday 1 May 2011

'Marathi translation of pearls' from the 'Ram Katha - Manas Patanjali by Morari Bapu in the auspicious presence of Swami Ramdev at Patanjali Yogpeeth.' as understood by me.

इथे मला आस्था टी. वी. वर ऐकलेले काही अमृत विचार लिहायायचे आहेत. हे विचार मी परम पूज्य श्री मोरारी बापू ह्यांच्या प्रवचना मध्ये ऐकले आहेत. मोरारी बापू हे उत्तुंग उंची असलेले महा पुरुष आहेत तर मी एक सामान्य माणूस आहे. जर वाचकांना असे वाटले की मी इथे सांगितलेली गोष्ट बरोबर नाही तर त्यांनी त्यांचे विचार इथे लिहावे, त्यांचे स्वागत आहे.

साधू च्या आश्रमाला दारेच दारे असतात आश्रमाला भिंती नसतात.

माझा भारत हा स्मित हास्य करणारा भारत आहे.

जनहो तुम्ही ऐका प्रशांत आणि प्रसन्न होऊन ऐका, एकाग्रता नसली तरी चिंता नाही.

आकाशाकडे फक्त इंद्र धनुष्याची कामना करू नका तिथे वीज पण आहे आणि सोसाट्याचे वारे पण आहेत.

काही लोक सत्याचा उच्चार तर करतात पण दुसऱ्याने सांगितलेले सत्य ते स्वीकारत नाही.

गांधीजींचे आदर्श इतके उत्तुंग आहेत की कोणी असे म्हणणारा की मी गांधीवादी आहे दंभच करत असतो.

ज्या वाटेवर आम्ही निघालो होतो तिकडे रस्ताच नव्हता.

शीशा पत्थर साथ रहे बात नही  घबराने की
 लेकीन शर्त इतनी है की बात न हो टकराने की

गानिमत है की मौसम पर उनकी हुक़ुमत नही चलती
वरना सारे बादल उनके खेत में ही बरस जाये

गोस्वमीजीनी यम नियमांना फुल म्हटलेले आहे.

फुल म्हणजे रस, गंध, पराग, आकार.

यम नियमाचे पालन करतांना माणसाने फुला प्रमाणे बहरावे.

सत्याच्या तीन रेखा आहेत, विचार, उच्चार, आचार.

आपण दुसर्याने सांगितलेले सत्य स्वीकार पण करावे.

सत्य हे जय आणि पराजयाच्या वर आहे.

यह अकेला (साधू) नही थकेगा मिलकर बोझ उठाना.

सिद्ध होऊ शकत नही तर शुद्ध व्हा.

विचारांना पण संतुष्टीची मर्यादा असावी.

लक्षात ठेवा की शास्त्र सुद्धा वासनेचे रूप धारण करू शकते.

पण ह्याचा अर्थ असा नही की स्वाध्यायात प्रमाद करावा.

हम बाट ले काईनाथ तू मेरा बाकी तेरा म्हणजेच ईश्वर  प्रणीधान

यम नियम हे फुल आहेत, शूल आहेत, मूळ आहेत.

निज  गीरा पावन करन  कारण, राम जस तुलसी कह्यो.
फुलांमध्ये दहाही यम नियम आहेत.

बघा योगी हे अत्यंत सुकुमार असतात, ते मुळीच हिंसक नसतात.

गुरु  म्हणजे आपला विवेक किंवा ग्रंथ सुद्धा गुरु असू शकतो.

मन क्रम बचन छाडी  चतुराई, तब कृपा करीहही राघुराई

नसीम वो रुठते है तो रूठने दे, क्या बात बन जायेगी मनाने से

जर कोणी तुमच्यावर रागावले असेल तर प्रेमाने त्याच्याकडे दुर्लक्ष करा.

गुरु वर श्रद्धा ठेवा, गुरु वर प्रेम करा.
देखकर दिलकशी जमाने की , आरजू है फिर धोका खाने की
ए गमे  जिंदगी तू नाराज ना हो, हमे आदत है मुस्कुराने की

अंधेरे से मत डरो रस्ते मे, कोई रोशनी मिल जायेंगी शराबखाने की

गुरु म्हणजे महापुरुषांचा संग

ईर्ष्या करणे हा ज्याचा स्वभाव आहे तो कोणाची पण ईर्ष्या करेल, बापाची, मुलाची, गुरूची.

चरागो का कोई अपना मकान नही होता
 व्यास म्हणजे खूप विशाल.

समीपता, संपर्क, सन्निधी, संसर्ग  एक साररखे आहेत पण एक नाही.

आँख तो उसकी अलीन होती है, और लोग मुझे सवाल करते है.

साधू च्या कोणी जवळ असत नाही, साधू कोणापासून दूर असत नाही

मैल भरा है मन मे, मुखडा क्या देखु दर्पण मे

मै जिसे  ओढता बिछाता हूँ, वही गजल आपको सुनता हूँ .

प्रज्ञा नसेल तर शास्त्र काय कामाचे, डोळे नसतील तर आरसा काय कामाचा.

न कोई गुरु न कोई चेला, अकेले मे भीड, भीड मे अकेला.

तपाचे  चे फळ - सिद्धी

संत विश्वाला प्रकाशित करतात, प्रभावित नाही.

खुदा ए बंदगी असीम होती है, इसलिये जिंदगी हसीन होती है.

अभी तो जाम खाली है, ए गर्दीशे ऐय्याम मै कुछ सोच रहा हूँ.
साकी तुझे थोडी तकलीफ तो होगी, मेरा सागर थाम ले मै कुछ सोच रहा हूँ.
पहले तो बहुत लगाव था तेरे नाम से मुझको, अब तेरा नाम सुनके मै कुछ सोच रहा हूँ.

न अगली देख न पिछली देख मै सदके जावा मझली देख.

जे झाले त्याची चिंता करू नका, जे होणार आहे त्याची ही नको, जे आत्ता आहे ते पहा.

पूजो सबको सेवो एक को, सभीमे उसका नूर समाया.

बडे नादान थे ये चंद आंसू भी, बडी सादगी  से बह गये.

सोये कहा थे आंसू से तकिये भिगोये थे.

कृष्णानी धन सोडले, रण सोडले, पण सोडला, करुणा सोडली नाही.

वाणी - मन - संकल्प - चित्त - ध्यान - योग विज्ञान - बळ - अन्न - जल - तेज - आकाश - स्मरण - आशा - प्राण

कसलीही  आशा नसणे  म्हणजे आसन.

कोणा  सोबत राहण्या पेक्षा कोणावर विश्वास ठेवणे मोठे.
काही नवीन मिळविण्या पेक्षा, जे आहे ते राखून ठेवणे चांगले.
नियम पाळण्यापेक्षा प्रेम करणे चांगले.

किसीसे उनकी मंजिल का पता पाया नही जाता, वो जहा है फारीश्तो को वहा जाया नही जाता
प्रेम मार्ग के पथिक आशा तक नही रखते.

रामायणातील बालकांड हे यम नियमाचे कांड आहे.

अयोध्या कांड हे आसनाचे कांड आहे.

जे रोगासन ही नाहीं आणि भोगासन ही नाही ते योगासन.

आसन सत्वगुणी असावे, तिथे रजोगुण किवा तमोगुण नको. 

सहज अवस्था ही सगळ्यात उत्तम अवस्था आहे.

बुध विश्राम सकल जन रंजन.

नदी के घाट पर गर सियासी लोग बस जाये, तो प्यासे लोग एक बुंद पानी को भी तरस जाये.

मै उम्र भर अदम न दे सका जवाब, वे मुस्कुराकर इतने सवाल कर गये.

फुरसत का वक़्त देखकर मिलना कभी अजल, अभी मुझको भी काम है तुझको भी काम है.

आसन ते जिथे प्रयत्न हळू हळू शिथिल होऊन जातात.
जिथे द्वंद्वाचा आघात होत नाही ते आसन.
इथे आपण बदलत नाही तर भूमिका बदलते.

कृष्णमुर्ती  म्हणतात की तुम्ही प्रयत्नपूर्वक झोपू शकत नाही.
ओशो म्हणतात की काय आपल्या साधल्याने आसन सिद्धी होणार आहे?

प्रयत्न सोडू नका पण त्याने काही होणार नाही.

बडा दुश्वार था दुनीया में ये फन आना भी, की तुम्हीसे फसला रखना और तुम्हे अपनाना भी.

प्राणायाम म्हणजे प्राणाचा विस्तार.

सिद्धते चा अहंकार येऊ शकतो, शुद्धतेचा ढेकर येतो.

कबीर म्हणतो की अहो जन हो काही तरी सृजनशील  करा हो 
कह कबीर कछू उद्दयम कीजे 

प्राणायाम केल्याने खाली दिलेले लाभ होतात...
१. लघुत्वम - शरीरामध्ये तरलता येते.
२. आरोग्य 
३. अलोलुपत्वम
४. वर्ण प्रसादम
५. स्वर शौष्ठवम

गमे हयात को खुशगवार कर लुंगा, मै तेरी जफावो  से प्यार कर लुंगा.

शाहो की निगाहो में अजब तासीर होती हैं
निगाहे लुफ्त से देखे तो खाक भी अक्सीर होती हैं.

जब तुम मुझे अपना कहते हो, अपने पे गुरुर आ जाता हैं 

शास्त्र प्रत्येक काळा मध्ये प्रासंगिक असते.

शरीरामध्ये असलेले वायु..
१. प्राण - नासिके पासून हृदया पर्यंत
२. अपान - मल मुत्र विसर्जन करणारा वायु  
३. समान - पचन क्रिया करणारा
४. व्यान - अंगा अंगा पर्यंत रक्त संचालन करणारा.
५. उदान - कंठा पासून मस्तिष्का पर्यंत जाणारा 

प्राणायाम म्हणजे संपूर्ण विश्वा मध्ये सीताराम पाहणे. 
सियराममय सब जग जानी. 

ज्यांना काही प्राप्त करून  घ्यायचे आहे त्यांनी जय जय सुर नायक म्हणावे.
संसारी लोकंनी विरक्ती निर्माण करण्याकरता रुद्राष्टक म्हणावे.
वान्प्रस्थ्यांनी अत्री मुनीच्या रचनेचा पाठ करावा.

अरण्य कांडा मध्ये राम वनवासी आणि गीरीवासी पर्यंत पोहोचले म्हणून अरण्य कांड हे प्राणायामाचे कांड आहे.

जेव्हा पंख जातात तेव्हा दृष्टी राहाते, म्हणजे कर्म नाही पण ज्ञान आहे.

हिलने लगे ही तख्त, उछ्लने लगे है ताज
शाहो ने जब सुना कोई किस्सा फकीर का

सगळ्यांचे भरण पोषण करा, शत्रुता मिटवा.

तोड दी है मैने बेडिया सब, अब न तू है न रब
तू बेवफा हुआ तो हुआ, अब न होना बेअदब.

हमसफर भी है सहारे भी है, फिर क्यो बह रहे आंसू बेसबब.

रामाच्या लग्ना मध्ये कामदेव हा रामाचा घोडा झाला होता,
विवाह व्यवस्था कामाला बेलगाम करण्या करता नाही.

किष्किंधा कांडा मध्ये  प्रत्याहार समजावलेला आहे.
सुग्रीव बालीच्या भयाने द्रोणगिरी पर्वता वर निवास करतो, इथे इंद्रियांना बहिर्मुख न करण्याकडे संकेत आहे.
बाली जेव्हा प्रभूंना पाहतो तेव्हा आपला अहंकार सोडून  देतो.

सुंदर कांडा मध्ये धारणा समाजावलेली  आहे.
सीता अनेक राक्षसींच्या उपस्थितीत आपली दृष्टी पायावर आणी मन रामावर केंद्रित करते.

लंका कांड हे ध्यानाचे कांड आहे.
रावण आपले अस्तित्व प्रभु रामचंद्रांच्या हृदयात लीन करतो.

उत्तर कांड हे समाधी चे कांड आहे.
समाधी म्हणजे आपल्या हृदयाच्या सिंहासनावर प्रभु रामचंद्रांचा राज्याभिषेक.

धारणा म्हणजे लीन होणे.
ध्यान म्हणजे लयलीन होणे.  
समाधी म्हणजे तल्लीन होणे.