Monday 2 May 2011

Some more drops of nectar...

प्रिय मित्रो,
बापू से आस्था के माध्यम से सुनी है ये सब बाते, सो यहाँ लिख रहा हु. यदि आपको लगता है की कही समझने में गलती हुई है तो ठीक कर देना जी.

महर्षि पतंजलि के नियम -
१. पवित्रता
२. संतोष 
३. तप
४. स्वाध्याय
५. शौच
६. इश्वर प्रणिधान
 योग मार्ग में संतोष नियम है तो भक्ति मार्ग में संतोष आठवी भक्ती है.
जो संतोष नहीं रखते उनके प्रति भी संतोष रखना चाहिए.

प्रवृत्ति भी ठीक है, निवृत्ति भी ठीक है, पर इन दोनों में सद्वृत्ति रहनी चाहिए.
यदि हम किसी महापुरुष की नक़ल कोई लाभ उठाने के लिए कर रहे है, तो यह गलत बात है.
यदि हमें कोई लाभ की चाह नहीं है तो नक़ल भी ठीक ही है.

इन चीजो को फेरते रहना अच्छा होता है...
घोडा
रोटी
पान
माला

गुरु चरणों के कणों को मानस में निम्नलिखित उपमाए दी गयी है..
१. पराग - यहाँ तात्पर्य फूल के सामान खिलने से है
२. धुल - यहाँ तात्पर्य धरती के सामान क्षमाशील और उपकारी बनने से है.
३. रज - यहाँ गुरु पद की सूक्ष्मता समझनी चाहिए.
४. रेणु - यहाँ अर्थ है की गुरु के बताये हुए रस्ते पर पड़े रहो.

दीक्षा का अर्थ है परम स्वातंत्र्य.

मूल में रहो फूल शाखाओ में नहीं, वह व्यवस्था का भाग है.

शास्त्र और राजा किसीके वश नहीं होते.

राज रोग का शमन सुवर्ण भस्म है.

दुःख के कारण -
१. आभाव
२. अन्याय
३. अज्ञान

आदिवासियों की कसरते ध्यान के बिना संभव नहीं.

अभिमत - अपने मत को पूरा करने वाला.

विनोबा भावे कहते है की नारियल फोड़ने के लिए जो घाव पहले किये जाते है वो व्यर्थ है और जो आखरी घाव है वो हे कारगर है ऐसा नहीं है. पहले के घावो ने भी नारीयल की मजबुती तोड़ी है.

 कोई भी काम सफल होने के लिए तीन बाते जरूरी है..
१. व्यवस्था - इसका सम्बन्ध कर्म से है.
२. अवस्था - इसका सम्बन्ध मन से है.
३. आस्था - इसका सम्बन्ध अध्यात्म से है.

इश्वर है की नहीं चिंता नहीं, श्रद्धा तो है.

बुद्धि यह बहिर्मुख चेतना है.

श्रद्धा यह अंतर्मुख चेतना है.

पाप के मूल ...
१. मूढ़ता
२. कुटिलता
३. हिंसा
४. कुचाली जैसे शकुनी और मंथरा
५. दुर्बुद्धि 

नौ प्रकार की भक्ति
१. श्रवण २ कीर्तन ३. स्मरण ४. पाद सेवन ५. अर्चन ६. वंदन ७. दास्य ८. सख्य ९. आत्म निवेदन

दर्शन यह भक्ति का सार है.

सुबह उठकर कर दर्शन करना चाहिए, हमारे कर कोई गलत कम नहीं करेंगे ऐसा प्रण करना चाहिए.

महर्षि विश्वामित्र को जब महाराज दशरथ कहते है की मै सेवक, पुत्र और नारी सहित आपका हूँ, तो उनका तात्पर्य कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से है.

राम को वनवास क्यों हुआ ऐसा प्रश्न जब निषाद ने लक्ष्मण से किया तो जवाब मिला की क्या सूर्य वंश में उत्पन्न होने वाले वातानुकूलित जगहों में रहेंगे. वो तो तपेंगे और दूसरो को सुख देंगे.

जब जोई गृहिणी खाना बनती है तो तीनो योग जरुरी है..
१. ज्ञान योग. - उसे खाना बनाने की विधि का ज्ञान होना चाहिए.
२. कर्म योग - उसने खाना बनाने के लिए आवश्यक कर्म करने चाहिए.
३. भक्ति योग - उसके मन में यह भाव होना चाहिए की भोजन खाने वाला तृप्त हो जाये.

अपनी जितनी औकात है उतना कर्म करना वो कर्म योग.

नागरिको में निम्न लिखित गुण होने चाहिए
१. सहनशील
२. संवेदनशील
३. स्वप्नशील
४. सर्जनशील
५. सत्यशील

हमारी लार टपकनी नहीं चाहिए याने किसीसे कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए.
हमने लार किसी पर थूकनी भी नहीं चाहिए याने किसीकी उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए.

दक्ष की कन्या बुद्धि, हिमालय की कन्या श्रद्धा

हनुमान का राजधर्म है की राम के पास ले जाते है.
सुग्रीव को भी ले गए.
पहले राम (सत्य, प्रेम, करुणा) फिर राज
सोये हुए को जागृत जगाता है, जैसे सुग्रीव को लक्ष्मण ने जगाया
जब जागृत सो जाता है, हनुमान जगाते है. जैसे लक्ष्मण को हनुमान ने जगाया.

हमने यहाँ देखी है किस्म किस्म की नजरे
चकोर चाँद जैसी कोई डगर ढूंढते है

हनुमान ने रावन को समझाया, अपहरण से कल्याण नहीं हो सकता समर्पण से होता है.

गांधीजी ने अपने आचरण से यह बताया की पुरुषार्थ के साथ प्रार्थना होनी चाहिए.
                 
आनंद महलों में नहीं होता मन में होता है.

हम किस स्थान में है इससे कुछ फरक नहीं पड़ता, हा इससे फरक पड़ता है की हमारी दृष्टि कैसी है.
यदि दृष्टि कैकयी की  है तो अयोध्या में भी मंथरा के दर्शन हो जाते है और यदि दृष्टी हनुमान की है तो लंका में भी विभीषण जैसे संत से मुलाक़ात हो जाती है.

जब हम किसी संकट में होते है तो धरती से जुडी हुई बाते ही हमें उभारती है, हवा की बाते नहीं.
सीताजी लंका में थी. रावण जैसा राक्षस उसे डरा धमका रहा था. सीताजी ने रावण को तृण की पात दिखाई. यहाँ संकेत धरातल से जुड़ने का हैं. जब हम धरातल से जुड़ते है तो हनुमान जैसी दैवी शक्ति हमारी रक्षा के लिए हमारे पीछे प्रकट हो जाती है.

भगवान से मुलाक़ात का फल अच्छा ही निकले यह जरूरी नहीं हैं. 
सती ने भगवान राम की परीक्षा करने के लिए मुलाक़ात की. इसका अंजाम यहाँ हुआ की भगवान शंकर ने उन्हें त्याग दिया.
शुर्पनखा ने प्रभु से मुलाक़ात की तो उसके नाक कान कट गए.
इसीलिए गांधीजी ने साधन शुचिता की बात की है.

दक्ष को भगवान शंकर पर क्रोध था. एक बार देवो की सभा में जब दक्ष ने प्रवेश किया तो सभी उठकर खड़े हुए. भगवान शंकर ध्यान में थे इसलिए खड़े नहीं हुए. दक्ष का अपमान हो गया. अहंकारी व्यक्ति का सम्मान सौ लोगो के खड़े होने से नहीं होता है लेकिन एक के खड़े न होने से उसका अपमान हो जाता है.
दक्ष ने यज्ञ का आयोजन भगवान शंकर को अपमानित करने के लिए किया. अंततः यज्ञ का विध्वंस हो गया.
यदि उद्देश्य ठीक नहीं है तो अच्छे कार्यो का भी विध्वंस हो जाता है.

शुर्पनखा जब भगवान से मिलने गयी तो उसके नाक कान कट गए. इसका संकेत इस ओर है की हम जब आतंरिक रूप से शुद्ध नहीं होते है और भगवान के सामने पवित्र रूप में प्रकट होते है तो कालांतर में हम विद्रूप हो जाते है.

हनुमानजी ने सीताजी को जो मुद्रिका दी थी वह भगवान के पास गंगाजी को पार करते समय आयी थी. केवट ने प्रभु को सीता, लक्ष्मण समेत गंगा पार कराया. प्रभु वनवासी थे सो देने के लिए उनके पास कुछ न था. उन्होंने सीताजी से मुद्रिका मांगी और केवट को देना चाही. केवट ने लेने से इंकार कर दिया. वही मुद्रिका प्रभु ने हनुमान को सीताजी को देने के लिए दी. इस प्रकार वह मुद्रिका सीताजी के पास वापस आई. यहाँ केवट और हनुमान की भक्ति के सुक्ष्म भावो को समझे और भक्ति रूपी मुद्रिका को पाने के लिए अधिकार को जाने.

जब हमारा कोई सम्मान करता है तो इसे हम हमारा बड़प्पन न समझ बैठे. यह तो सम्मान देने वाले का बड़प्पन है कि वह विनयशील है.

सीता ने पार्वती की पूजा की, तो ऐसा लिखा है की सीता की भक्ति देखकर मुर्ती मुस्कुरायी. विद्वानों को इस पर आक्षेप है कि मुर्ती मुस्कुरा कैसे सकती है. हा उन लोगो को कैसे पता चले कि मुर्ती मुस्कुराती है जिन्हें देखकर बाहरवाले तो क्या उनके घरवाले भी नहीं मुस्कुराते, अजी मुस्कुराना तो छोडिये उनसे बात भी नहीं करते.

जब हनुमान लंका की ओर उड़ान भर के जा रहे थे तो उनकी भेट एक राक्षसी से हुई. यह राक्षसी समुद्र के ऊपर से उड़ने वाले पक्षियों को मारकर खाती थी. वह उडते पक्षी की परछाई को पकड़ लेती और फिर उसे निचे गिराकर मार डालती. यह राक्षसी कोई और नहीं बल्कि हमारे भीतर रहने वाली इर्ष्या है. राक्षसी समुद्र के प्राणियों को नहीं मारती है. वह जो जीव ऊंचाई पर है उन्हें मारती है. हम हमारी बराबरी के लोगो से इर्ष्या नहीं करते है. उनसे इर्ष्या करते है जो ऊपर उठे हुए है. हम उनकी हर परछाई पर नजर रखते है और उन्हें निचे गिराने की कोई कसर नहीं छोड़ते. हनुमानजी ने इस राक्षसी का अंत कर दिया. हनुमानजी के दर्शन होने से ही हमारी इर्ष्या का अंत हो सकता है.

इन्द्र का लड़का जयंत प्रभु का दर्शन करने के लिए चित्रकूट गया. वह कौवे का रूप धारण कर के गया. प्रभु एकांत में सीता के साथ बैठे थे. जयंत में उनको देखकर गलत भाव जागे और उसने सीता के पैर की ऊँगली में चोच मारी. हम जब भी किसीके यहाँ निमंत्रण पर जाते है तो हम भी दर्शन करने की जगह इधर उधर चोच मारने में ही रूचि दिखाते है.
 प्रभु ने जब यह देखा तो जयंत की ओर उन्होंने एक घास का बाण छोड़ दिया. जयंत अपनी जान बचाने के लिए भागा. वह ब्रह्माजी के पास गया, शिवजी के पास गया लेकिन उसे कोई सुरक्षा नहीं मिली. तब वह अपने पिता इन्द्र के पास गया. इन्द्र ने उससे कहा की तुने अपराध प्रभु का किया है तो इधर उधर क्यों भाग रहा है, जाके प्रभु से क्षमा मांग. हमने इससे यह बोध लेना चाहिए कि हमने यदि किसीका अपराध किया है तो जाके उससे क्षमा मंगनी चाहिए ना की इधर उधर दौड़ना चाहिए.

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