Tuesday 30 August 2011

Manas 700, Day 5 - Ram Katha by Morari Bapu at Kailash Mansarovar as far as I understood.

हनुमान चालीसा में चालीस पंक्ति ही क्यों है.
इसका संकेत इस ओर है की चार वास्तु को शुन्य कर दे.
हनुमान चालीसा भी राम कथा है.
रामचरित मानस का संक्षिप्त रूप है सुन्दर कांड और सुन्दर कांड का संक्षिप्त रूप है हनुमान चालीसा.
हनुमान चालीसा का अनुष्ठान संकटों से बचने के लिए और काम निकालने के लिए न करे.
ह्रदय में बैठा हुआ ब्रह्म अक्रिय है. ज्ञान और कर्तव्य बुद्धि उसे सक्रीय कर सकती है.
हनुमान चालीसा मानसिक बीमारी का इलाज है.

गीत को ठीक से समझे..
हमने हसरतो के दाग मुहोब्बत में धो लिए
ख़ुशी आपकी हुजुर बोलिए ना बोलिए
भक्ति मार्ग में हसरत दाग है, कलंक है.
कितने हसीं खात मेरी निगाह ने , बड़ी सादगी से भारह रूह में चुभो दिए
जिंदगी का रास्ता तो काटना ही था अदम, उठ गए तो चल दिए थक गए तो सो दिए
घर से चले थे हम ख़ुशी की तलाश में, गम राह में खड़े थे वही साथ हो लिए 

लक्ष्मण जागृति और होश में किये हुए कर्म का प्रतीक है.
चार वस्तु शुन्य - मन निर्विकार होने लगता है.
मन का निरोध नहीं मन का प्रबोध करो.
एक गुरु ने जब उसे एक शिष्य ने पूछा की भजन माने क्या करे तो कहा की निरंतर सामने मुझे देखा कर.
बुद्ध पुरुष के अगल बगल में मन की निर्विचारता प्राप्त होती है.
बुद्ध पुरुष के निकट जाने से लाभ नहीं, देह अभिमान देगा.
तंत्र मार्ग में हनुमान चालीसा का उपयोग कभी भी ना करे.
शुन्य मानसक होते हुए भी साधक मन को संचालित करता है.
पागल का भी मन शुन्य हो जाता है. ऐसी शुन्यता यहाँ नहीं कही जा रही है.
पैसे के मालिक अच्छे, पैसे के गुलाम किस कम के.
जो दुसरो को दिया जाय उसके हम मालिक, जो न दिया जाये उसके हम गुलाम.
कोई भी वस्तु को नष्ट करना आध्यात्मिकता नहीं है.
मन को सुधार लेना है, खुशबु से भरना है.
बुद्धि का व्यभिचारिणीपन हनुमान चालीसा से रुकेगा.
कुछ न कुछ छूट जाना ही जिंदगी है.
जगत अपूर्ण ही मिलेगा, परमात्मा पूर्ण ही मिलेगा.
विषयी साधक सिद्ध सयाने, त्रिबिध जीव जग बेद बखाने.
७०-८० % लोग विषयी है. २० % साधक और ५-१० % सिद्ध. शुद्ध तो कोई माई का लाल ही मिलेगा.
विषयी लोगो को तीन बातो में रस होता है.
सुत बित लोक इष्णा तिनी.
सुत का मतलब है पारिवारिक सुख की चाह.
स्वार्थ बुद्धि अध्यात्मिक मार्ग में बाधा न बने.
घर के छोटे बड़ो को सम्मान दे, बड़े छोटो को वात्सल्य दे.
धन सुख में संतोष होना चाहिए.

एक राजा को एक सन्यासी ने कहा की उसके यहाँ हर हफ्ते एक एक करके पांच सन्यासी आएंगे.

पहले सन्यासी ने जब राजा ने उसे कुछ देना चाहा तो भिक्षा पात्र उंडेला और अनेक रत्न बिखेरे.
दूसरा सन्यासी जब आया तो राजा ने उसे कुछ देने की चेष्टा नहीं की. उसने भी अद्भुत रत्न राजा को प्रदान किये.
तीसरे ने अनेक वरदान प्रदान किये.
चौथे ने भी बहोत दान दिया और पात्र व्यक्तियों को उसे देने के लिए कहा.
पांचवा सन्यासी आया ही नहीं. राजा ने राह देखी. जिस सन्यासी ने पांच सन्यासियों की आने की बात कही थी, वह वापस आया. राजाने कहा की पांचवा सन्यासी तो आया ही नहीं. उसने कहा वह आया था लेकिन आपके इर्द गिर्द के लोगो ने ही उसे जकड़े रखा और वह लौट गया. वह संतोष लाया था.
व्यक्ति राजसिक और सामाजिक सुखो की कामना करता है.
संतोष तो हनुमान की शरण में ही है.
सिद्ध न बन सके तो साधक बने. किसी को किसी प्रकार की बाधा न पहुचाते हुए साधक बने.
परमात्मा की पूजा करे, परमात्मा से प्रेम करे.
कर साहिब की बंदगी, भूखे को कुछ दे.
यह कर्त्तव्य बुद्धि से करे किसी पर अहसान कर रहे है इस भावना से नहीं.
भजन करो भोजन कराओ
मुझे मान मिलने से नहीं, दुसरो को सम्मान देने से मै सुखी होता हूँ.
लोग ऐसा दिखाते है की वे साथ चलते है, पर वे बिलग बिलग होते है.
दो विद्वान् बड़ी लम्बी तीर्थयात्रा कर के एक घर में पहुचे. यजमान ने भोजन करने को कहा. उन्होंने कहा की हम पहले नहाते है फिर भोजन करेंगे.
जब एक विद्वान नहा रहे थे तो यजमान ने दुसरे से पूछा की आपके साथ जो है वो क्या बहोत विद्वान् है? उसने कहा वह तो बैल है, मेरे साथ चलता है तो इज्जत मिलती है.
जब एक नहा कर आये तो दुसरे गए. उनसे जब पूछा की अभी जो नहा रहे है वो क्या बहोत विद्वान् है? उत्तर मिला वो तो घोड़े है सिर्फ चलते है, विद्वत्ता तो सब मेरे पास है.
एक घंटे के बाद यजमान ने भोजन परोसा. एक को भूसा तो एक को चारा.
कठिन तपस्या के बाद अहंकार न आये.

सिद्ध तिन सुखो को चाहता है. १. आत्म सुख २. निज सुख ३. परम विश्राम
आत्म सुख माने सकल जन रंजन.

भक्त का सुख है प्रभु के गुण गान गाते गाते सुनते सुनते परम विश्राम को पाना.
सुख की उपेक्षा न करे. उसे दुसरो को बाटे फिर भोगे.
धर्म सुख का विरोधी नहीं है पर सुख में सिमट नहीं जाता.
वाल्मीकि आदि कवी है, शंकर अनादि कवी है.
सर्जन को जब अपनी कृति कोई गाता है तो आनंद आता है.
सम्मान को प्राप्त करने से या तो ऐसा निष्कर्ष निकल सकता है की सम्मान देनेवाला सरल है या ऐसा भी निष्कर्ष निकल सकता है की वह तो कुछ भी नहीं है. भरद्वाज जी ने जब सती और भगवान शंकर को सम्मान दिया तो भगवान शंकर ने पहला निष्कर्ष निकला और सती ने दूसरा.
स्वामी विवेकानंद ने कहा है की विश्वास जीवन है और संदेह मृत्यु.











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